-" إن قوما يقرءون القرآن، لا يجاوز تراقيهم، يمرقون من الإسلام كما يمرق السهم من الرمية".-" إن قوما يقرءون القرآن، لا يجاوز تراقيهم، يمرقون من الإسلام كما يمرق السهم من الرمية".
عمرو بن سلمہ ہمدانی کہتے ہیں کہ ہم قبل از نماز فجر عبداللہ بن مسعود رضی اللہ عنہ کے گھر کے دروازے پر بیٹھا کرتے تھے، جب وہ نکلتے تو ہم ان کے ساتھ مسجد کی طرف چل پڑتے، ایک دن سیدنا ابوموسیٰ اشعری رضی اللہ عنہ ہمارے پاس آئے اور پوچھا: ابھی تک ابوعبدالرحمٰن (ابن مسعود) تمہارے پاس نہیں آئے؟ ہم نے کہا: نہیں۔ وہ بھی ہمارے ساتھ بیٹھ گئے، (ہم انتظار کرتے رہے) حتٰی کہ سیدنا عبداللہ تشریف لائے، جب وہ آئے تو ہم بھی ان کی طرف کھڑے ہو گئے۔ ابوموسٰی نے انہیں کہا: ابوعبدالرحمٰن! ابھی میں نے مسجد میں ایک چیز دیکھی ہے، مجھے اس پر بڑا تعجب ہوا، لیکن اللہ کے فضل سے وہ نیکی کی ہی ایک صورت لگتی ہے۔ انہوں نےکہا: وہ ہے کیا؟ ابوموسیٰ نے کہا: اگر آپ زندہ رہے تو خود بھی دیکھ لیں گے، میں نے دیکھا کہ لوگ حلقوں کی صورت میں بیٹھ کر نماز کا انتظار کر رہے ہیں، ان کے سامنے کنکریاں پڑی ہیں، ہر حلقے میں ایک (مخصوص) آدمی کہتا ہے: سو دفعہ ”اللہ اکبر“ کہو۔ یہ سن کر حلقے والے سو دفعہ ”اللہ اکبر“ کہتے ہیں۔ پھر وہ کہتا ہے: سو دفعہ ”سبحان اللہ“ کہو۔ یہ سن کر وہ سو دفعہ ”سبحان اللہ“ کہتے ہیں۔ انہوں نے پوچھا: اس عمل پر تو نے ان کو کیا کہا؟ ابوموسٰی نے کہا: میں نے آپ کی رائے کے انتظار میں کچھ نہیں کہا: انہوں نے کہا: تو نے انہیں یہ کیوں نہیں کہا: کہ وہ (ایسے نیک اعمال کی بجائے) برائیاں شمار کریں اور یہ ضمانت کیوں نہیں دی کہ ان کی نیکیاں (کبھی بھی) ضائع نہیں ہوں گی (لیکن وہ ہوں نیکیاں)؟ پھر وہ چل پڑے، ہم بھی ان کے ساتھ ہو لیے۔ ایک حلقے کے پاس گئے، ان کے پاس کھڑے ہوئے اور کہا: تم لوگ یہ کیا کر رہے ہو؟ انہوں نے کہا: اے ابوعبدالرحمٰن! یہ کنکریاں ہیں، ہم ان کے ذریعے تکبیرات، تہلیلات اور تسبیحات کو شمار کر رہے ہیں۔ انہوں نے کہا: ایسی (نیکیوں کو) برائیاں تصور کرو، میں ضمانت دیتا ہوں کہ تمہاری نیکیوں میں سے کسی نیکی کو ضائع نہیں کیا جائے گا (بشرطیکہ) وہ نیکی ہو۔ اے امت محمد! تمہاری ناس ہو جائے، تم تو بہت جلد اپنی ہلاکت کے پیچھے پڑ گئے ہو، ابھی تک تم میں اصحاب رسول کی بھر پور تعداد موجود ہے، ابھی تک تمہارے نبی کے کپڑے بوسیدہ نہیں ہوئے اور نہ ان کے برتن ٹوٹے ہیں، (یعنی آپ صلی اللہ علیہ وسلم کی وفات کا زمانہ قریب ہی ہے)۔ اس ذات کی قسم جس کے ہاتھ میں میری جان ہے! کیا تم لوگوں نے محمد صلی اللہ علیہ وسلم کے دین سے بہتر دین کو اپنا رکھا ہے یا ضلالت و گمراہی کا دروازہ کھول رہے ہو؟ انہوں نے کہا: اے ابوعبدالرحمٰن! ہمارا ارادہ تو نیکی کا ہی تھا۔ انہوں نے کہا: کتنے لوگ ہیں جو نیکی کا ارادہ تو کرتے ہیں، لیکن اس تک پہنچ نہیں پاتے۔ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے ہمیں یہ حدیث بیان کی تھی: ”بعض لوگ قرآن مجید کی تلاوت تو کریں گے، لیکن وہ تلاوت ان کے گلے سے نیچے (دل میں) نہیں اترے گی، وہ (بیگانے ہو کر) دین سے یوں نکلیں گے جیسے تیر شکار سے آر پار ہو جاتا ہے۔“ اللہ کی قسم! مجھے تو کوئی سمجھ نہیں آ رہی، شائد تم میں سے اکثر لوگ (اسی حدیث کا مصداق) ہوں۔ پھر وہ وہاں سے چلے گئے۔ عمرو بن سلمہ کہتے ہیں: ہم نے ان حلقے والوں کی اکثریت کو دیکھا کہ وہ نہروان والے دن خوارج کے ساتھ مل کر ہم پر نیزہ زنی کر رہے تھے۔
अमरो बिन सलमह हमदानी कहते हैं कि हम फ़जर की नमाज़ से पहले अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ि अल्लाहु अन्ह के घर के दरवाज़े पर बेठा करते थे, जब वह निकलते तो हम उन के साथ मस्जिद की तरफ़ चल पड़ते, एक दिन हज़रत अबु मूसा अशअरी रज़ि अल्लाहु अन्ह हमारे पास आए और पूछा ! अभी तक अबु अब्दुर्रहमान (इब्न मसऊद) तुम्हारे पास नहीं आए ? हम ने कहा कि नहीं, वह भी हमारे साथ बैठ गए, (हम इंतिज़ार करते रहे) यहां तक कि हज़रत अब्दुल्लाह आए, जब वह आए तो हम भी उन की तरफ़ खड़े हो गए। अबु मूसा ने उन से कहा ! अबु अब्दुर्रहमान, अभी मैं ने मस्जिद में एक चीज़ देखी है, मुझे उस पर बड़ी हैरत हुई, लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल से वह नेकी ही का एक रूप लगता है। उन्हों ने कहा कि वह है क्या ? अबु मूसा ने कहा ! अगर आप ज़िंदा रहे तो ख़ुद भी देख लेंगे, मैं ने देखा कि लोग घेरा बनाए बेठे हैं और नमाज़ का इंतिज़ार कर रहे हैं, उन के सामने कंकरियां पड़ी हैं, हर घेरे में एक आदमी केहता है ! सौ दफ़ा “अल्लाह अकबर” « اللهُ أَكْبَرُ » कहो। ये सुन कर घेरे वाले सौ दफ़ा “अल्लाह अकबर” « اللهُ أَكْبَرُ » कहते हैं। फिर वह केहता है ! सौ दफ़ा “सुब्हान अल्लाह” « سُبْحَانَ اللَٰه » कहो। ये सुन कर वे सौ दफ़ा “सुब्हान अल्लाह” « سُبْحَانَ اللَٰه » कहते हैं। उन्हों ने पूछा कि ऐसा करने पर तू ने उन को क्या कहा ? अबु मूसा ने कहा ! में ने आपकी राय लिए बिना कुछ नहीं कहा ! उन्हों ने कहा ! तू ने उन्हें ये क्यों नहीं कहा कि वे (इस को नेक कर्मों के बजाए) बुराइयों से जोड़ें और ये ज़मानत क्यों नहीं दी कि उन की नेकियाँ (कभी भी) बर्बाद नहीं होंगी (लेकिन वे हों नेकियाँ) ? फिर वह चल पड़े, हम भी उन के साथ हो लिए। एक घेरे के पास गए, उन के पास खड़े हुए और कहा ! तुम लोग ये क्या कर रहे हो ? उन्हों ने कहा ! ऐ अबु अब्दुर्रहमान, ये कंकरियां हैं, हम इन के द्वारा तक्बीरों, और तस्बीह को गिन रहे हैं। उन्हों ने कहा ! ऐसी (नेकिओं को) बुराइयां समझा करो, मैं ज़मानत देता हूँ कि तुम्हारी नेकिओं में से किसी की नेकी को बर्बाद नहीं किया जाएगा (शर्त यह है) वह नेकी हो। ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्मत, तुम्हारा नास हो जाए, तुम तो बहुत जल्दी अपनी हलाकत के पीछे पड़ गए हो, अभी तक तो तुम में रसूल के बहुत सारे सहाबा मौजूद हैं, अभी तक तुम्हारे नबी के कपड़े पुराने नहीं हुए और न उन के बर्तन टूटे हैं, (यानी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मृत्यु को ज़्यादा समय नहीं गुज़रा है)। उस ज़ात की क़सम जिस के हाथ में मेरी जान है, क्या तुम लोगों ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दीन से अच्छे दीन को अपना रखा है या रुसवाई और गुमराही का दरवाज़ा खोल रहे हो ? उन्हों ने कहा कि ऐ अबु अब्दुर्रहमान ! हमारी नियत तो नेकी ही करने की थी। उन्हों ने कहा ! कितने लोग हैं जो नेकी की नियत तो करते हैं, लेकिन उस तक पहुंच नहीं पाते। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हम से हदीस कही थी ! “कुछ लोग क़ुरआन मजीद तो पढ़ा करेंगे, लेकिन उस का पढ़ना यानि अर्थ उन के गले से नीचे (दिल में) नहीं उतरेगा, वह (बेगाने होकर) दीन से यूँ निकल जाएंगे जैसे तीर शिकार से आर पार हो जाता है।” अल्लाह की क़सम, मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा, शायद तुम में से बहुत से लोग (इसी हदीस का सबूत) हों। फिर वह वहां से चले गए। अमरो बिन सलमह कहते हैं कि हमने नहरवान वाले दिन इन घेरे वाले लोगों में से बहुत सारे लोगों को ख़ारजियों के साथ मिलकर हम पर भाले फेंकते देखा।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 2005
قال الشيخ الألباني: - " إن قوما يقرءون القرآن، لا يجاوز تراقيهم، يمرقون من الإسلام كما يمرق السهم من الرمية ". _____________________ أخرجه الدارمي (1 / 68 - 69) ، وبحشل في " تاريخ واسط " (ص 198 - تحقيق عواد) من طريقين عن عمر بن يحيى بن عمرو بن سلمة الهمداني قال: حدثني أبي قال: حدثني أبي قال: " كنا نجلس على باب عبد الله بن مسعود قبل صلاة الغداة، فإذا خرج مشينا معه إلى المسجد، فجاءنا أبو موسى الأشعري، فقال: أخرج إليكم أبو عبد الرحمن بعد؟ قلنا: لا، فجلس معنا حتى خرج، فلما خرج قمنا إليه جميعا، فقال له أبو موسى: يا أبا عبد الرحمن! إنى رأيت في المسجد آنفا أمرا أنكرته، ولم أر والحمد لله إلا خيرا، قال: فما هو؟ فقال: إن عشت فستراه، قال: رأيت في المسجد قوما حلقا جلوسا، ينتظرون الصلاة، في كل حلقة رجل، وفي أيديهم حصى، فيقول: كبروا مائة، فيكبرون مائة، فيقول هللوا مائة، فيهللون مائة، ويقول سبحوا مائة، فيسبحون مائة، قال: فماذا قلت لهم ؟ قال: ما قلت لهم شيئا انتظار رأيك، قال: أفلا أمرتهم أن يعدوا سيئاتهم، وضمنت لهم أن لا يضيع من حسناتهم شيء؟ ثم مضى ومضينا معه، حتى أتى حلقة من تلك الحلق، فوقف عليهم، فقال: ما هذا الذي أراكم تصنعون؟ قالوا: يا أبا عبد الرحمن! حصى نعد به التكبير والتهليل والتسبيح، قال: فعدوا سيئاتكم فأنا ضامن أن لا __________جزء : 5 /صفحہ : 11__________ يضيع من حسناتكم شيء، ويحكم يا أمة محمد! ما أسرع هلكتكم! هؤلاء صحابة نبيكم صلى الله عليه وسلم متوافرون، وهذه ثيابه لم تبل، وآنيته لم تكسر، والذي نفسي بيده إنكم لعلى ملة هي أهدى من ملة محمد، أو مفتتحوا باب ضلالة؟ ! قالوا والله: يا أبا عبد الرحمن! ما أردنا إلا الخير، قال: وكم من مريد للخير لن يصيبه، إن رسول الله صلى الله عليه وسلم حدثنا: (فذكر الحديث) ، وايم الله ما أدري لعل أكثرهم منكم! ثم تولى عنهم، فقال عمرو بن سلمة: فرأينا عامة أولئك الحلق يطاعنونا يوم النهروان مع الخوارج ". قلت: والسياق للدارمي وهو أتم، إلا أنه ليس عنده في متن الحديث: " يمرقون ... من الرمية ". وهذا إسناد صحيح، إلا أن قوله: " عمر بن يحيى " أظنه خطأ من النساخ، والصواب: " عمرو بن يحيى "، وهو عمرو بن يحيى بن عمرو بن سلمة ابن الحارث الهمداني (¬1) . كذا ساقه ابن أبي حاتم في كتابه " الجرح والتعديل " (3 / 1 / 269) ، وذكر في الرواة عنه جمعا من الثقات منهم ابن عيينة، وروى عن ابن معين أنه قال فيه: " صالح ". وهكذا ذكره على الصواب في الرواة عن أبيه، فقال (4 / 2 / 176) : " يحيى بن عمرو بن سلمة الهمداني، ويقال: الكندي. روى عن أبيه روى عنه شعبة والثوري والمسعودي وقيس بن الربيع وابنه عمرو بن يحيى ". ولم يذكر فيه جرحا ولا تعديلا، ويكفي في تعديله رواية شعبة عنه، فإنه كان ينتقي الرجال الذين كانوا يروي عنهم، كما هو مذكور في ترجمته، ولا يبعد أن يكون في ¬ __________ (¬1) وكنت أظن قديما أنه عمرو بن عمارة بن أبي حسن المازني، فتبين لي بعد أنه وهم قد رجعت عنه. اهـ. __________جزء : 5 /صفحہ : 12__________ " الثقات " لابن حبان، فقد أورده العجلي في " ثقاته " وقال: " كوفي ثقة ". وأما عمرو بن سلمة، فثقة مترجم في " التهذيب " بتوثيق ابن سعد، وابن حبان (5 / 172) ، وفاته أن العجلي قال في " ثقاته " (364 / 1263) : " كوفي تابعي ثقة ". وقد كنت ذكرت في " الرد على الشيخ الحبشي " (ص 45) أن تابعي هذه القصة هو عمارة بن أبي حسن المازني، وهو خطأ لا ضرورة لبيان سببه، فليصحح هناك. وللحديث طريق أخرى عن ابن مسعود في " المسند " (1 / 404) ، وفيه الزيادة، وإسنادها جيد، وقد جاءت أيضا في حديث جمع من الصحابة خرجها مسلم في " صحيحه " (3 / 109 - 117) . وإنما عنيت بتخريجه من هذا الوجه لقصة ابن مسعود مع أصحاب الحلقات، فإن فيها عبرة لأصحاب الطرق وحلقات الذكر على خلاف السنة، فإن هؤلاء إذا أنكر عليهم منكر ما هم فيه اتهموه بإنكار الذكر من أصله! وهذا كفر لا يقع فيه مسلم في الدنيا، وإنما المنكر ما ألصق به من الهيئات والتجمعات التي لم تكون مشروعة على عهد النبي صلى الله عليه وسلم ، وإلا فما الذي أنكره ابن مسعود رضي الله عنه على أصحاب تلك الحلقات؟ ليس هو إلا هذا التجمع في يوم معين، والذكر بعدد لم يرد، وإنما يحصره الشيخ صاحب الحلقة، ويأمرهم به من عند نفسه، وكأنه مشرع عن الله تعالى! * (أم لهم شركاء شرعوا لهم من الدين ما لم يأذن به الله) *. زد على ذلك أن السنة الثابتة عنه صلى الله عليه وسلم فعلا وقولا إنما هي التسبيح بالأنامل، كما هو مبين في " الرد على الحبشي "، وفي غيره. ومن الفوائد التي تؤخذ من الحديث والقصة، أن العبرة ليست بكثرة العبادة وإنما __________جزء : 5 /صفحہ : 13__________ بكونها على السنة، بعيدة عن البدعة، وقد أشار إلى هذا ابن مسعود رضي الله عنه بقوله أيضا: " اقتصاد في سنة، خير من اجتهاد في بدعة ". ومنها: أن البدعة الصغيرة بريد إلى البدعة الكبيرة، ألا ترى أن أصحاب تلك الحلقات صاروا بعد من الخوارج الذين قتلهم الخليفة الراشد علي بن أبي طالب؟ فهل من معتبر؟ !