سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4035 :ترقیم البانی
سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4103 :حدیث نمبر

سلسله احاديث صحيحه
सिलसिला अहादीस सहीहा
زکوۃ، سخاوت، صدقہ، ہبہ
ज़कात, दान, सदक़ा और भेंट
626. قرضہ دینے کا اجر و ثواب
“ क़र्ज़ देने का बदला और सवाब ”
حدیث نمبر: 940
Save to word مکررات اعراب Hindi
-" إن السلف يجري مجرى شطر الصدقة".-" إن السلف يجري مجرى شطر الصدقة".
ابن اذنان کہتے ہیں کہ میں نے علقمہ کو دو ہزار درہم قرضہ دیا، جب ادائیگی کا وقت آیا تو میں اس کے پاس گیا اور کہا: کہ مجھے میرا قرضہ ادا کرو۔ اس نے کہا: مجھے اگلے سال تک مہلت دو۔ (میں نے اس کی یہ بات تسلیم کر لی اور ایک سال کے بعد) قرضہ لینے کے لیے آیا، پھر اس کے بعد تیسری دفعہ آیا، اس نے کہا: تو مجھے تکلیف دینے پر مصر ہے، اور تو نے مجھے روکا ہوا ہے۔ میں نے کہا: جی ہاں، وہ تیرا ہی عمل ہے۔ اس نے کہا: میرا عمل کیسے؟ میں نے کہا: کیا تو نے مجھے سیدنا عبداللہ بن مسعود رضی اللہ عنہ سے بیان کیا تھا کہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: قرض نصف صدقہ کے قائم مقام ہو تا ہے؟ اس نے کہا: ہاں، وہ اسی طرح ہی ہے۔ اس نے کہا: اب لے لیجئے۔
इब्न उज़ुनान कहते हैं कि मैं ने अलक़मह को दो हज़ार दरहम क़र्ज़ दिया, जब वापस करने का समय आया तो मैं उस के पास गया और कहा ! कि मुझे मेरा क़र्ज़ वापस करो। उस ने कहा ! मुझे अगले वर्ष तक मोहलत दो। (मैं ने उस की यह बात स्वीकार कर ली और एक वर्ष के बाद) क़र्ज़ लेने के लिए गया, फिर उस के बाद तीसरी दफ़ा गया, उस ने कहा ! तू मुझे तकलीफ़ पहुंचा रहा है, और तू ने मुझे रोका हुआ है। मैं ने कहा ! जी हाँ, वह तेरा ही कर्म है। उस ने कहा ! मेरा कर्म कैसे ? मैं ने कहा ! क्या तू ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ि अल्लाहु अन्ह से कहा था कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “क़र्ज़ा आधे सदक़ह के बराबर होता है ?” उस ने कहा ! हाँ, इसी तरह ही है। उस ने कहा ! अब ले लीजिए।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 1553

قال الشيخ الألباني:
- " إن السلف يجري مجرى شطر الصدقة ".
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‏‏‏‏أخرجه أحمد (1 / 412) وأبو يعلى (3 / 1298 - مصورة الكتب) من طريق حماد بن
‏‏‏‏سلمة أخبرنا عطاء بن السائب عن ابن أذنان قال: " أسلفت علقمة ألفي درهم، فلما
‏‏‏‏خرج عطاؤه قلت له: اقضيني، قال: أخرني إلى قابل، فأتيت عليه فأخذتها، قال
‏‏‏‏: فأتيته بعد، قال: برحت بي وقد منعتني، فقلت: نعم، هو عملك، قال: وما
‏‏‏‏شأني، قلت: إنك حدثتني عن ابن مسعود أن النبي صلى الله عليه وسلم قال:
‏‏‏‏(فذكره) قال: نعم فهو كذاك، قال: فخذ الآن ".
‏‏‏‏__________جزء : 4 /صفحہ : 70__________
‏‏‏‏
‏‏‏‏قلت: وهذا إسناد رجاله ثقات، إلا أن ابن أذنان لم يوثقه غير ابن حبان، وقد
‏‏‏‏اختلف في اسمه والراجح أنه سليم كما ذهب إليه المحقق أحمد شاكر رحمه الله
‏‏‏‏تعالى، ويأتي التصريح بذلك قريبا في بعض الطرق. وعطاء بن السائب كان اختلط
‏‏‏‏. لكن للحديث طريق أخرى، فقال الطبراني في " المعجم الكبير " (رقم 9180) :
‏‏‏‏حدثنا علي بن عبد العزيز أخبرنا أبو نعيم أخبرنا دلهم بن صالح حدثني حميد بن
‏‏‏‏عبد الله الثقفي أن علقمة بن قيس استقرض من عبد الله ألف درهم ... الحديث نحوه
‏‏‏‏ولم يرفع آخره، ولفظه: " قال عبد الله: لأن أقرض مالا مرتين أحب إلي من أن
‏‏‏‏أتصدق به مرة ". ودلهم هذا ضعيف. وحميد بن عبد الله الثقفي، أورده ابن أبي
‏‏‏‏حاتم (1 / 2 / 224) لهذا الإسناد، ولم يذكر فيه جرحا ولا تعديلا.
‏‏‏‏والجملة الأخيرة منه قد رويت من طريقين آخرين عن ابن مسعود مرفوعا، فهو بمجموع
‏‏‏‏ذلك صحيح. والله أعلم. راجع " تخريج الترغيب " (2 / 34) . وتابعه عن
‏‏‏‏الجملة الأخيرة منه قيس بن رومي عن سليم بن أذنان به مرفوعا بلفظ: " من أقرض
‏‏‏‏ورقا مرتين كان كعدل صدقة مرة ". أخرجه الخرائطي في " مكارم الأخلاق " (ص 19
‏‏‏‏) وابن شاهين في " الترغيب والترهيب " (314 / 1) والبيهقي في " السنن " (
‏‏‏‏5 / 353) . وله طريق أخرى عن الأسود بن يزيد عن عبد الله بن مسعود مرفوعا
‏‏‏‏بلفظ: " من أقرض مرتين كان له مثل أجر أحدهما لو تصدق به ".
‏‏‏‏__________جزء : 4 /صفحہ : 71__________
‏‏‏‏
‏‏‏‏أخرجه ابن حبان (
‏‏‏‏1155) والخرائطي والهيثم بن كليب في " مسنده " (53 / 2 - 54 / 1)
‏‏‏‏والطبراني في " المعجم الكبير " (3 / 68 / 1) وابن عدي (212 / 2) من طريق
‏‏‏‏أبي حريز أن إبراهيم حدثه عنه.
‏‏‏‏قلت: وهذا سند لا بأس به في المتابعات، رجاله ثقات غير أبي حريز واسمه عبد
‏‏‏‏الله بن الحسين الأزدي، قال الذهبي: " فيه شيء ". وقال الحافظ: " صدوق
‏‏‏‏يخطىء ".
‏‏‏‏(السلف) : القرض الذي لا منفعة للمقرض فيه.
‏‏‏‏قلت: ومع هذا الفضيلة البالغة للقرض الحسن، فإنه يكاد أن يزول من بيوع
‏‏‏‏المسلمين، لغلبة الجشع والتكالب على الدنيا على الكثيرين أو الأكثرين منهم،
‏‏‏‏فإنك لا تكاد تجد فيهم من يقرضك شيئا إلا مقابل فائدة إلا نادرا، فإنك قليل ما
‏‏‏‏يتيسر لك تاجر يبيعك الحاجة بثمن واحد نقدا أو نسيئة، بل جمهورهم يطلبون منك
‏‏‏‏زيادة في بيع النسيئة، وهو المعروف اليوم ببيع التقسيط، مع كونها ربا في
‏‏‏‏صريح قوله صلى الله عليه وسلم : " من باع بيعتين في بيعة فله أوكسهما أو الربا
‏‏‏‏". وقد فسره جماعة من السلف بأن المراد به بيع النسيئة، ومنه بيع التقسيط،
‏‏‏‏كما سيأتي بيانه عند تخريج الحديث برقم (2326) . ¤


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